Nisha

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सैर चौथे दरवेश की

        

                                                           सैर चौथे दरवेश की

 

 

 

            या मुर्शिद अल्लाह ! ज़रा गौर से सुनो। यह फ़क़ीर ,जो इस हालत में गिरफ्तार है ,चीन के बादशाह का बेटा है। नाज़ व नेमत से परवरिश पायी। और बा खूबी तरबियत हुआ। ज़माने के भले बुरे से वाक़िफ़ न था। जानता था की ऐसे हमेशा निभेगी। ऐन बे फ़िक्री में यह हादसा के सामना हुआ। क़िब्ला आलिम,जो वालिद उस यतीम के थे ,उन्होंने वफ़ात पायी। जान जाने से पहले से अपने छोटे भाई की,जो मेरे चाचा है ,बुलाया और फ़रमाया  की हमने तो सब माल मुल्क छोड़ कर इरादा कूच किया ,लेकिन यह वसीयत मेरी तुम बजा लाओ ,और बुज़ुर्गी को काम में लाओ। जब तलक  शहज़ादा ,जो मालिक इस तख़्त का है ,जवान हो और शयूर संभाले और अपना घर देखे भाले ,तुम उसकी नियाबत  करना और सिपाह व दर्जे को खराब न होने देना। जब वह बालिग हो ,उसको सब कुछ समझा बुझा कर तख़्त हवाले करना। और रोशन अख्तर जो तुम्हारी बेटी है ,उससे शादी करके ,तुम सल्तनत से किनारा पकड़ लेना। इस सुलूक से बादशाहत हमारे खानदान में क़ायम रहेगी। कुछ खलल न आएगा। यह कह कर आप तो जा बहक  हुए ,चाचा बादशाह हुआ ,और बंदोबस्त मुल्क का करने लगा। मुझे हुक्म किया की ज़नाने महल में रहा करे।  जब तक जवान न हो ,बाहर न निकले। यह फ़क़ीर चौदा बरस की उम्र तक बेगमात (बीविया) और ख्वासो में पला किया  और खेला कूदा किया। चाचा की बेटी से शादी की खबर सुन का शाद था। और इस उम्मीद पर बे फ़िक्र रहता  और दिल में कहता की अब कोई  दिन में बादशाहत भी हाथ लगेगी ,कत खुदाई भी होगी। दुनिया बा उम्मीद  क़ायम है। एक हब्शी मुबारक नाम के वालिद मरहूम की खिदमत में तरबियत हुआ था और उसका बड़ा एतबार था और साहब शऊर और नामक हलाल था ,मैं अकसर उसके नज़दीक जा बैठा। वह भी मुझे प्यार करता और मेरी जवानी देख कर खुश होता और कहता की अल्हम्दुलिल्लाह ! ए शहज़ादे ,अब तुम जवान हुए।  इंशा अल्लाह जल्द ही तुम्हारा फैसला होगा और नसीहत पर अमल करेगा। अपनी बेटी और तुम्हरे वालिद का तख़्त  तुम्हे देगा।

 

            एक रोज़ यह इत्तेफ़ाक़ हुआ की एक अदना सहेली ने बेगुनाह मेरे ऐसा तमाचा मारा की मेरे गाल पर पांचो उंगलियों के निशान पड़ गए। मैं रोता हुआ मुबारक के पास गया। उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और आंसू आस्तीन से पोछे और कहा की चलो  आज तुम्हे बादशाह के पास ले चलु। शायद देख कर मेहरबान हो और लायक समझ कर तुम्हारा हक़ तुम्हे दे। चाचा ने दरबार में निहायत शफ़क़त की और पूछा की क्यू उदास हो और आज यहाँ क्यू आये हो ? मुबारक बोला की कुछ अर्ज़ करने आये है। यह सुन कर खुद बखुद कहने लगा की अब मिया का बियाह कर देते है   मुबारक ने कहा : बहुत मुबारक है। वही नजूमी और राममालो को रु बा रु तलब किया और ऊपरी दिल से पूछा  की इस साल कौन सा महीना और कौन सा दिन और घड़ी महूरत मुबारक है सर अंजाम शादी का करू ? उन्होंने मर्ज़ी पाकर  ,गिन कर अर्ज़ किया की क़िब्ला आलम ! यह बरस सारा नहस है ,किसी चाँद में कोई तारीख नहीं रूकती।  अगर यह साल तमाम खैरियत से कटे तो आइंदा कार खैर के लिए बेहतर है।

बादशाह ने मुबारक की तरफ देखा और कहा की शहज़ादे को महल में लेजा। खुदा चाहे तो इस साल के गुज़रने से उसकी अमानत  उसके हवाले कर दूंगा ,खातिर जमा रखे और पढ़े लिखे। मुबारक ने सलाम किया और मुझे साथ लिया ,महल में पंहुचा दिया। दो तीन दिन के बाद मैं मुबारक के पास गया। मुझे देखते ही रोने लगा। मैं हैरान हुआ और पूछा  की दादा ! खैर तो है तुम्हारे रोने की वजह क्या है ? तब वह खैर ख़्वाह ,की मुझे दिल व जान से चाहता था। बोला की मैं उस रोज़ तुम्हे उस ज़ालिम के पास ले गया। काश की अगर यह जानता तो न ले जाता। मैंने घबरा कर कहा : मेरे जाने में ऐसी क्या बुराई हुई  ? कहो तो सही। तब उसने कहा की सब अमीर और वज़ीर ,अरकान दौलत  छोटे बड़े तुम्हारे बाप के वक़्त के ,तुम्हे देख कर खुश हुए और खुदा का शुक्र अदा करने लगे की अब हमारा साहब ज़ादा जवान हुआ और सल्तनत  के लायक हुआ। अब कोई दिन में हक़ हक़दार को मिलेगा ,तब हमारा क़द्रदानी करेगा  और खाना ज़ाद मोरिस्यो की क़द्र जानेगा। यह खबर उस बेईमान को पहुंची। उसकी छाती पर सांप  फिर गया। मुझे अकेले में बिला कर कहा : ए ! मुबारक अब ऐसा काम कर की शहज़ादे को किसी फरेब से मार डाल ,और उसका खतरा मेरे जी से निकाल ,जो मेरी खातिर जमा हो तबसे मैं बे हवास हो रहा हु। की तेरा चाचा तेरी जान का दुश्मन हुआ।  जैसे मुबारक से यह खबर न मुबारक मैंने सुनी बगैर मारे मर गया।  और जान के डर से  उसके पाव पर गिर पड़ा ,की वास्ते खुदा के ! मैं सल्तनत से गुज़रा ,किसी तरह मेरा जी बचे। उस गुलाम बा वफ़ा ने मेरा सर उठा कर छाती से लगा लिया। और जवाब दिया की कुछ खतरा नहीं। एक तदबीर मुझे सूझी है ,अगर रास्त आयी  तो कुछ परवाह नहीं। ज़िन्दगी है तो सब कुछ है।

मुमकिन है की उस फ़िक्र से तेरी जान भी बचे ,और अपने मतलब से कामयाब हो। यह भरोसा देकर मुझे साथ लेकर  ,उस जगह जहा बादशाह मतलब मेरे वालिद इस फ़क़ीर के सोते बैठते थे गया। और मेरी बहुत खातिर जमा की  . वह  एक कुर्सी बिछी थी ,एक तरफ मुझे कहा और एक तरफ आप पकड़ कर संदली को सरकाया ,और कुर्सी के तले का फर्श उठाया। और ज़मीन को खोदने लगा। अचानक से एक खिड़की नमूदार हुई की ज़ंजीर और ताला उसमे लगा है  मुझे बुलाया। मैं अपने दिल पर मुक़र्रर यह समझा की मेरे ज़ब्ह करने और गाड़ देने को यह गढ़ा  उसने खोदा है। मौत  आँखों के आगे फिर गयी। लाचार चुपके चुपके कलमा पढता हुआ नज़दीक गया। देखता हु उस दरीचे के  अंदर ईमारत है और चार मकान है। हर एक दालान में दस दस खेमे सोने की ज़ंजीरो में जकड़ी हुई  लटकती है। और हर एक गोली के मुंह पर सोने की ईंट ,और एक बंदर जड़ाऊ का बना बैठा है। ३९ गोलिया चारो मकान में गिनी  .और एक खुम को देखा की मुंह तक अशर्फिया भरी है। और उसपरन धुल  मिटटी है। और एक हौज़  जवाहर से लबालब भरा हुआ देखा।  मैंने मुबारक से पूछा : की ए दादा ! यह क्या तिलिस्म है ,और किसका मकान है  ,और यह किस काम के है ? बोला की यह बूज़ ने जो  देखा है ,उनका यह माजरा है की तुम्हारे बाप ने  जवानी के वक़्त से मुल्क सादिक़ ,जो बादशाह जिनो का है। उसके साथ दोस्ती और आमद व रफ़्त पैदा की थी।

चुनांचा हर साल में एक दफा कई तरह की तोहफों खुशबुए और उस मुल्क की सौगाते ले जाते ,और एक महीने के  क़रीब उसकी खिदमत में रहते। जब रुखसत होते ,तो मालिक सादिक़ एक बंदर ज़मुर्रद (क़ीमती पत्थर) का देता। हमारा बादशाह  उसे लाकर  इस तहखाने में। रखता इस बात से सिवाए  मेरे किसी को खबर न  थी। एक मर्तबा गुलाम ने अर्ज़ की  की जहा पनाह ! लाखो रूपये तोहफे ले जाते है और वहा से एक बोज़ना पत्थर का मुर्दा आप ले आते है  .इसका आखिर क्या फायदा है ? जवाब मेरी इस बात का मुस्कुरा कर फ़रमाया : खबरदार कही ज़ाहिर न करना  ,खबर शर्त है। यह एक एक मेमन बेजान जो देखता है ,हर एक के हज़ार देव ज़बरदस्त वफदार और फ़रमाबरदार  है। लेकिन जब तलक मेरे पास चालीसवे बंदर पुरे न हुए ,तब तक यह सब निकम्मे है ,कुछ काम के न आएंगे। सो एक बंदर की कमी थी की उसी बरस बादशाह ने वफ़ात पायी।

इतनी मेहनत कुछ नेक न लगी ,उसका फायदा ज़ाहिर न हुआ ,ए शहज़ादे ! तेरी यह हालत बेकसी  मुझे देख कर  याद आया  और यह जी में ठहराया ,किसी तरह तुझको मलिक सादिक़ के पास ले चलु और तेरे चाचा का ज़ुल्म बयान करू।  ग़ालिब है की वह दोस्ती तुम्हारे बाप की याद कर कर ,एक बोज़ना जो बाक़ी है तुझे दे। तब उनकी मदद से  तेरा मुल्क तेरे हाथ आये। और चीन वमाँ चीन की सल्तनत तू बा खातिर जमा करे। और आखिर इस हरकत से तेरी जान  बचती है। अगर  और कुछ न हो ,तो उस ज़ालिम के हाथ से सिवाए इस तदबीर के और कोई  सूरत मुख्लिसि  की नज़र नहीं आती। मैंने  उसकी ज़बानी  यह सब कैफियत सुन कर कहा की दादा जान ! अब तो मेरी जान   का मुख्तार है। जो मेरे हक़ में भला हो सो हो। मेरी तसल्ली करके , आप इत्र और कुछ वहा ले जाने की  खातिर मुनासिब जाना ,खरीद करने बाजार गया।


         दूसरे दिन मेरे उस काफिर चाचा के पास ,जो बजाए अबू जहल के था ,गया और कहा : जहा पनाह ! शहज़ादे के मार  डालने की एक सूरत मैंने दिल में ठहराई है ,अगर हुक्म हो तो अर्ज़ करू। वह कम्बख्त खुश हो कर बोला : वह क्या तदबीर है  ? तब मुबारक ने कहा की उसके मार डालने में सब तरह आपकी बदनामी है। मगर मैं उसे  बाहर जंगल में  ले जाकर ठिकाना लगाऊं और गाड़ दाब कर चला आऊं। हरगिज़ कोई महरम न होगा की क्या हुआ। यह  बंदिश मुबारक से सुन कर बोला की बहुत मुबारक। मैं यह चाहता हु की  वह सलामत न रहे। उसका दगदगा मेरे दिल में  है। अगर मुझे इस फ़िक्र से तो छुड़वाएगा ,तो इस खिदमत के बदले बहुत कुछ पायेगा। जहा तेरा जी  चाहे ले जाकर खपा दे और मुझे यह खुश खबरि ला दे।

मुबारक ने बादशाह की तरफ से अपनी दिल जमी करके मुझे साथ लिया। और वह तोहफे लेकर आधी रात को शहर से कूच किया और उत्तर की सिम्त चला। एक महीने तलक पिहम चला गया। रक रोज़ रात को चले जाते थे जो मुबारक बोला की शुक्र खुदा का ,अब मंज़िल मक़सूद पर पहुंचे। मैंने सुन कर कहा : दादा यह तूने क्या कहा ! कहने लगा : ए शहज़ादे ! जिनो का लश्कर क्या नहीं देखता ? मैंने कहा मुझे तेरे सिवा कुछ नज़र नहीं आता। मुबारक ने एक  सुरमे दानी निकाल कर ,सुलेमानी सुरमे की स्लायिया मेरी दोनों आँखों में फेर दी। वही जिनो की खलकत  (मख्लूक़) और लश्कर के तंबू क़नाअत नज़र आने लगा।  लेकिन सब  खुश रु बा रु और खुश लिबास। मुबारक को पहचान  कर ,हर एक आशनाई की राह से गले मिलता मज़ाखे करता।

आखिर जाते जाते बादशाही सराचो के नज़दीक गए और बारगाह में दाखिल हुए। देखता हु तो रौशनी क़रीने से रोशन है  . और संदलिया तरह तरह की दो रोइया बिछी है ,और आलिम ,फ़ाज़िल,दरवेश और अमीर ,वज़ीर,मीर  बख्शी  ,दिवान उन पर बैठे है। और गरजबरदार ,अहदी ,चेले हाथ बाँध खड़े है। और दरमियान में एक तख़्त मरसा  का बिछा है। उसपर मलिक सादिक़ ताज और चारकब मोतियों की पहने हुए ,मसनद पर तकिये लगाए बड़ी शान  व शौकत से बैठा है। मैंने नज़दीक जाकर  सलाम किया। महरबानगी से बैठने का हुक्म किया। फिर खाने का  चर्चा   हुआ। बाद फरागत के दस्तरख्वान बढ़ाया  गया। तब मुबारक की तरफ मुतवज्जह होकर अहवाल मेरा पूछा  गया। मुबारक ने कहा की अब उनके बाप की जगह पर चाचा उनका बादशाहत करता है। और उनका दुश्मन  जानी हुआ है। इसलिए मैं उन्हें वहा से ले भाग कर ,आप की खिदमत में लाया हु की यतीम है और सल्तनत का हक़  है। लेकिन बगैर मुरब्बी किसी से कुछ नहीं हो सकता। हुज़ूर की दस्तगीरी के वजह  से इस मज़लूम की परवरिश  होती है। उनके बाप की खिदमत का ह्क़ याद करके ,उनकी मदद फरमाईये। और वह चालीसवे पुरे हो। और यह अपने हक़  को पहुंच कर ,तुम्हारे जान व माल को दुआ दे। सिवाए साहब की पनाह के कोई उनका ठिकाना  नज़र नहीं आता।

 

            यह तमाम कैफियत सुन कर सादिक़ ने हिम्मत करके कहा की सच्ची हुक़ूक़ खिदमत और दोस्ती बादशाह माफ़ी के  हमारे ऊपर बहुत थे। और यह बिचारा तबाह हो कर ,अपनी सलतनत विरासत छोड़ कर ,जान बचाने के वास्ते यहाँ  तलक आया है और हमारे दामन दौलत में पनाह ली। है ता मक़दूर किसी तरह हमसे कमी न होगी और दर गुज़र   न करूँगा। लेकिन एक काम हमारा है ,अगर वह उससे हो सका और ख्यानत न की। और बखूबी अंजाम दिया और  इस इम्तिहान में पूरा उतरा। तो मैं क़ौल व क़रार करता हु की ज़्यादा बादशाह से सुलूक करूँगा ,और जो यह चाहेगा  सो दूंगा। मैंने हाथ बाँध कर इल्तिमास किया  की इस फिदवि से ता बा मक़दूर जो खिदमत सरकार की हो  सकेगी ,बजा लाऊंगा। और उसको बा खूबी व दियानत दारी और होश्यारी से करेगा ,और अपनी सआदत दोनों जहां की समझेगा। फ़रमाया की तू अभी लड़का है ,इस वास्ते बार बार ताकीद करता हु। रोकथाम। खियानत करे  और आफत में पड़े।मैंने कहा खुदा : बादशाह के इक़बाल से आसान करेगा। और मैं हत्ता मक़दूर कोशिश करूँगा  ,और अमानत हुज़ूर तक ले आऊंगा।

यह सुन कर ,मलिक सादिक़ ने मुझको क़रीब बुलाया और एक कागज़ दस्तकी से निकाल कर मेरे को दिखलाया और कहा  :  यह शख्स की शबीह (सूरत) है ,उसे जहा से जाने ,तलाश करके ,मेरी खातिर पैदा करके ला। और जिस खड़ी उसका निशाँ व नाम पायेगा और सामने जायेगा ,मेरी तरफ से बहुत इश्तियाक़ ज़ाहिर करना। अगर यह खिदमत  तुझसे सर अंजाम हुई ,तो जितनी उम्मीद तुझे मंज़ूर है ,उससे ज़यादा गौर पर दाखत की जाएगी ,न जैसा करेगा  ,वैसा पायेगा। मैंने उस कागज़ को जो देखा ,एक तस्वीर नज़र पड़ी की गश सा आने लगा। बा ज़ोर मारे डर  के  अपने आपको संम्भाला और कहा : बहुत खूब ,मैं रुखसत होता हु। अगर खुदा को मेरा भला करना है ,तो बा मुजब  हुक्म हुज़ूर के मुझसे अम्ल में आएगा। यह कह कर ,मुबारक  को हम राह लेकर ,जंगल  .गाँव ,बस्ती बस्ती ,शहर शहर ,मुल्क मुल्क ,फिरने लगा हर एक से  उसका नाम व निशान तहक़ीक़ करने। किसी ने न कहा की हां मैं जानता हूँ। या किसी  से मज़कूर सुना है। सात बरस तक इसी आलम में हैरानी व परेशानी सहता हुआ एक नगर में वारिद  हुआ। ईमारत आली और आबाद ,लेकिन वहा का हर एक टेक्स्ट इसम आज़म पढता था और खुदा की इबादत  बंदगी करता था।

एक अँधा हिंदुस्तानी फ़क़ीर भीक मांगता नज़र आया ,लेकिन किसी ने एक कोड़ी या एक निवाला न दिया। मुझे ताज्जुब  आया और उसके ऊपर रहम खाया। जेब में से एक अशर्फी निकाल कर उसके हाथ दी। वह लेकर बोला की ए  दाता ! खुदा तेरा भला करे ,तू शायद मुसाफिर है ,इस शहर बाशिंदा नहीं। मैंने कहा : हक़ीक़त सात बरस से  मैं तबाह हुआ हु। जिस काम को निकला हु , सुराग नहीं मिलता। आज इस बलदे में आ पंहुचा हु। वह बूढ़ा दुआए  दे कर चला ,मैं  उसके पीछे लग गया। बाहर शहर के एक मकान आलमी शान नज़र आया  वह उसके अंदर  गया। मैं भी चला। देखा तो जा बजा ईमारत गिर पड़ी है और बे मरम्मत हो रही है।

मैंने दिल में कहा की यह महल लायक बादशाहो के है। जिस वक़्त तैयारी उसकी होगी ,क्या ही मकान दिलचस्प   बना  होगा ! और अब तो वीरानी से क्या सूरत बन रही है ! पर मालूम नहीं  की उजाड़ क्यू पड़ा है ,और यह नाबीना  इस महल में क्यू बस्ता है। वह कोर लाठी टेकता हुआ चला जाता था की एक आवाज़ आयी ,जैसे कोई कहता है   की ए ! बाप खैर  तो है आज सवेरे क्यू फिरे आते हो ? पीर मर्द ने सुन कर जवाब दिया की बेटी ! खुदा ने एक जवान  मुसाफिर को मेरे अहवाल पर मेहरबान किया ,उसने एक मुहर मुझको दी। बहुत दिनों से पेट भर कर अच्छा  खाना न खाया था ,सो गोश्त ,मसाला ,घी तेल ,आटा ,लोन ,मोल लिया। और तेरी खातिर कपड़ा  ज़रूर था खरीद  किया। अब इसको छोड़ दे ,और इसी को पहन।  और खाना पका ,तू खा पी के इस सखी (बड़ा दिल) के हक़ में  दुआ दे। अगरचे  मतलब उसके दिल  का मालूम ,नहीं पर खुदा दाना बीना है। हम बे कसो की दुआ क़ुबूल करे।  मैंने यह अहवाल उसकी फ़ाक़ा कशी का जो सुना , बेइख्तियार  जी  में आया की बीस अशर्फिया  और उसको  दू। लेकिन आवाज़ की तरफ धयान जो गया ,तो एक औरत देखी की ठीक वह तस्वीर इसी माशूक़ की थी। तस्वीर को निकाल कर मुक़ाबिल किया ,सरे मौते न देखा। एक नारा दिल से निकला और बेहोश हुआ। मुबारक मेरे खुद  बगल में लेकर बैठा और पंखा करने लगा। मुझ में ज़रा सा होश आया ,उसकी तरफ ताक रहा था ,जो मुबारक  ने पूछा की तुमको क्या होगा ? अभी मुंह से जवाब नहीं निकला ,वह नाज़नीन बोली की ए जवान ! खुदा से डर ,और बगानी इस्तिरी पर निगाह मत कर ,हया और शर्म सबको ज़रूर है। 



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